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Hindu Dharm : भगवान नारायण के प्रमुख धाम | Dharmik-Stha |
भगवान नारायण के प्रमुख धाम, इन मंदिरों में भी विराजमान हैं भगवान विष्णु
सनातन संस्कृति में चार धामों का खास महत्व है। इन चार धामों में बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम व द्वारिका आते हैं। इनमें से सबसे श्रेष्ठ बदरीनाथ धाम को माना जाता हैं। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि हिमालय में भगवान नारायण सिर्फ बद्री विशाल में ही नहीं, बल्कि सात मंदिरों में विराजते हैं।
जिन्हें सप्त बद्री के नाम से भी जाना जाता है। सप्त बद्री समूह के इन मंदिरों का पुराणों में बद्रीनाथ सरीखा ही माहात्म्य बताया गया है। ये सभी मंदिर देवभूमि उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित हैं और पूजा परंपरा भी यहां बदरीनाथ के ही समान होती है। खास बात ये है कि इनका स्थापना काल भी वही माना जाता है, जो बदरीनाथ धाम का है।
बदरीनाथ धाम की तरह इन तीर्थों में भी भगवान नारायण विभिन्न रूपों में वास करते हैं। 'स्कंद पुराण ' के 'केदारखंड ' में कहा गया है कि 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा निदधे पदम्, समूलहमस्य पांसुरे स्वाहा' (सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु ने इस जगत को धारण किया है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अंतरिक्ष और तीसरे द्युलोक में तीन पदों को सुशोभित करते है यानि वे ही सर्वत्र व्याप्त है)।
इन सप्त बदरी मंदिरों के कुछ मंदिर सालभर दर्शनार्थियों के लिए खुले रहते हैं, जबकि बाकी में चारधाम सरीखी ही कपाट खुलने व बंद होने की परंपरा है। कहते हैं कि प्राचीन काल में जब बद्रीनाथ धाम की राह बेहद दुर्गम एवं दुश्वारियों भरी थी, तब अधिकांश भक्त आदि बद्री धाम में भगवान नारायण के दर्शनों का पुण्य प्राप्त करते थे, लेकिन कालांतर में सड़क बनने से बदरीनाथ धाम की राह आसान हो गई।
ऐसे जानें सप्त बद्री...
1. आदिबद्री
मान्यता है कि बद्रीनाथ दर्शन से पहले आदिबद्री के दर्शन करने चाहिये. आदिबद्री मतलब भगवान विष्णु का सबसे प्राचीन मंदिर जिसे उनकी तपस्थली भी कहा जाता है. उत्तराखंड के चमोली जिले में कर्णप्रयाग से मात्र 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है आदिबद्री मंदिर. यह 16 मंदिरों का एक समूह है जिसमें से 14 मंदिर आज भी यथावत सुरक्षित हैं।
कहते हैं कि स्वर्ग को जाते समय पांडवों द्वारा इन मंदिरों का निर्माण किया गया था. कुछ मान्यताओं के अनुसार आदि गुरू शंकराचार्य ने इन मंदिरों का निर्माण आठवीं सदी में किया था. जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का मानना है कि आदिबद्री मंदिर समूह का निर्माण आठवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच कत्यूरी वंश के राजाओं ने करवाया था।..
यहां पर स्थित मुख्य मंदिर में भगवान विष्णु की 3 फुट ऊंची मूर्ति की पूजा की जाती है. मंदिर परिसर में अन्य देवी देवताओं-भगवान सत्यनारायण, मां लक्ष्मी, भगवान शिव, मॉं काली, मॉं अन्नपूर्णा, राम-लक्ष्मण-सीता, मॉं गौरी, कुबेर, चकभान, भगवान शंकर व हनुमान जी के मंदिर स्थापित हैं.
आदिबद्री, पंचबद्री मंदिर का ही एक भाग है और पंचबद्री (आदिबद्री, विशाल बद्री, योग-ध्यान बद्री, वृद्ध बद्री और भविष्य बद्री) भगवान विष्णु को समर्पित हैं. एक मान्यता है कि भगवान विष्णु प्रथम तीन युगों (सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग) तक आदिबद्री मंदिर में ही रहे और कलयुग में वह बद्रीनाथ मंदिर चले गए और जब कलयुग समाप्त हो जाएगा, तब वह भविष्य बद्री स्थानांतरित हो जाएंगें।
2. कलयुग में श्रेष्ठ बद्री विशाल
नर-नारायण पर्वत के आंचल में समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित बदरीनाथ धाम देश के चार धामों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं सदी में बदरीनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान नारायण की चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। शालिग्राम शिला से बनी यह मूर्ति ध्यानमुद्रा में है।
कथा के अनुसार यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुंड से निकालकर मंदिर में स्थापित की थी। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तो उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरंभ कर दी। शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनंदा में फेंक गए।
शंकराचार्य ने उसकी पुनर्स्थापना की। लेकिन, मूर्ति फिर स्थानांतरित हो गई, जिसे तीसरी बार तप्तकुंड से निकालकर रामानुजाचार्य ने स्थापित किया। मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखंड दीप प्रज्ज्वलित रहता है, जो अचल ज्ञान-ज्योति का प्रतीक है। मंदिर के पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर बदरीनाथ शिखर के दर्शन होते हैं, जिसकी ऊंचाई 7138 मीटर है।
3. नृसिंह मंदिर जोशीमठ : नारायण के प्रतिरूप नृसिंह बदरी
जोशीमठ स्थित नृसिंह बद्री को छोड़कर बाकी अन्य सभी मंदिरों में भक्तों को भगवान नारायण के ही दर्शन होते हैं। जबकि, नृसिंह मंदिर में नारायण अपने चतुर्थ अवतार नृसिंह रूप में विराजमान हैं। हालांकि, अपने आसन पर वह भगवान बद्री नारायण की तरह ही देव पंचायत के साथ बैठते हैं।
चमोली जिले के ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में स्थित नृसिंह मंदिर भगवान विष्णु के 108 दिव्य तीर्थों में से एक है। सप्त बदरी में से एक होने के कारण इस मंदिर को नृसिंह बदरी भी कहा जाता है। मान्यता है कि आद्य गुरु शंकराचार्य ने स्वयं यहां नृसिंह शालिग्राम की स्थापना की थी।
यहां भगवान नृसिंह की लगभग दस इंच ऊंची शालिग्राम शिला से स्व-निर्मित प्रतिमा स्थापित है। इसमें भगवान नृसिंह कमल पर विराजमान हैं। उनके साथ बदरी नारायण, उद्धव और कुबेर के विग्रह भी स्थापित हैं। भगवान के दायीं ओर श्रीराम, माता सीता, हनुमानजी व गरुड़ महाराज और बायीं तरफ मां चंडिका (काली) विराजमान हैं।
भगवान नृसिंह के संबंध में ही मान्यता है कि इनके बायें हाथ के कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। जिस दिन कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत के आपस में मिलने से बदरीनाथ की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी।
4. योग-ध्यान बदरी
पांडुकेश्वर नामक स्थान पर भगवान नारायण का ध्यानावस्थित तपस्वी स्वरूप का विग्रह विद्यमान है। अष्टधातु की यह मूर्ति बेहद चित्ताकर्षक और मनोहारी है। जनश्रुति है कि भगवान योग-ध्यान बदरी की मूर्ति इंद्रलोक से उस समय लाई गई थी, जब अर्जुन इंद्रलोक से गंधर्व विद्या प्राप्त कर लौटे थे। प्राचीन काल में रावल भी शीतकाल में इसी स्थान पर रहकर भगवान बदरी नारायण की पूजा करते थे। सो, यहां पर स्थापित भगवान नारायण का नाम योग-ध्यान बदरी हो गया। योग-ध्यान बदरी का पंच बदरी में तीसरा स्थान है। शीतकाल में जब नर-नारायण आश्रम में बदरीनाथ धाम के पट बंद हो जाते हैं, तब भगवान के उत्सव विग्रह की पूजा इसी स्थान पर होती है। इसलिए इसे 'शीत बदरी' भी कहा जाता है।
5. वृद्ध बदरी
जोशीमठ से सात किमी की दूरी पर अणिमठ (अरण्यमठ) में भगवान विष्णु का अत्यंत सुन्दर विग्रह विराजमान है, जिसकी नित्य-प्रति पूजा और अभिषेक होता है। यहां भगवान बदरी नारायण का प्राचीन मंदिर है, जिसमें वे 'वृद्ध बदरी' के रूप में विराजमान हैं। जनश्रुति है कि एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में विचरण करते हुए बदरीधाम की ओर जाने लगे।
मार्ग की विकटता देखकर थकान मिटाने को वे अणिमठ नाम स्थान पर रुके। यहां उन्होंने कुछ समय भगवान विष्णु की आराधना व ध्यान कर उनसे दर्शनों की अभिलाषा की। तब भगवान बदरीनारायण ने वृद्ध के रूप में नारदजी को दर्शन दिए। तबसे इस स्थान में बदरी-नारायण की मूर्ति स्थापना हुई, जिन्हें वृद्ध बदरी कहा गया।
6. भविष्य बदरी
स्कंद पुराण के केदारखंड में कहा गया है कि कलयुग की पराकाष्ठा होने पर जोशीमठ के समीप जय-विजय नाम के दोनों पहाड़ आपस में जुड़ जाएंगे। राह अवरुद्ध होने से तब भगवान बदरी विशाल के दर्शन असंभव हो जाएंगे। ऐसे में भक्तगण समुद्रतल से 2744 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भविष्य बदरी में ही भगवान के विग्रह का दर्शन-पूजन कर सकेंगे। भविष्य बदरी धाम जोशीमठ-मलारी मार्ग पर तपोवन से आगे सुभांई गांव के पास स्थित है। यहां पहुंचने के लिए तपोवन से चार किमी की खड़ी चढ़ाई देवदार के घने जंगल के बीच से तय करनी पड़ती है।
कहते हैं कि यहां पर महर्षि अगस्त्य ने तपस्या की थी। वर्तमान में यहां पर पत्थर में अपने-आप भगवान का विग्रह प्रकट हो रहा है। इस मंदिर के कपाट बदरीनाथ के साथ ही खोलने की परंपरा है।
7. ध्यान बदरी
पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस स्थान पर इंद्र ने कल्पवास की शुरुआत की थी। कहते हैं कि जब देवराज इंद्र दुर्वासा के शाप से श्रीहीन हो गए, तब उन्होंने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए इस स्थान पर कल्पवास किया। तब से यहां कल्पवास की परंपरा चल निकली। कल्पवास में चूंकि साधक भगवान के ध्यान में लीन रहता है, इसलिए यहां पर भगवान का विग्रह भी आत्मलीन अवस्था में है। इसी कारण नारायण के इस विग्रह को ध्यान बदरी नाम से संबोधित किया गया।
नारायण भक्तों के लंबे प्रवास ने यहां पर विष्णु मंदिर को जन्म दिया और इस मंदिर को सप्त बदरी के अंग के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। प्राचीन काल में इस स्थान पर देवताओं ने भगवान की तपस्या की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने देवताओं को कल्पवृक्ष प्रदान किया। यह स्थान उर्गम धाटी के कल्पेश्वर क्षेत्र में स्थित है।
बदरीनाथ के आसपास दर्शनीय स्थल
अलकनंदा के तट पर तप्त-कुंड, ब्रह्म कपाल, सर्प का जोड़ा, शेषनाग की छाप वाला शिलाखंड 'शेषनेत्र', चरणपादुका, बर्फ से ढका नीलकंठ शिखर, माता मूर्ति मंदिर, देश का अंतिम गांव माणा, वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा, भीम पुल, अष्ट वसुओं की तपोस्थली वसुधारा, लक्ष्मी वन, सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी), अलकनंदा नदी का उद्गम एवं कुबेर का निवास अलकापुरी, सरस्वती नदी, बामणी गांव में भगवान विष्णु की जंघा से उत्पन्न उर्वशी का मंदिर।
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